संदेश

काश के ऐसा होता

आसमान भी बांट दे देते हैं लोग। ये मेरा ये तुम्हारा। जहां जहां जमीनों पर लकीरें खिंची हैं वहाँ का आसमान भी कब्जे में है उन अदृश्य लकीरों के।  अब जरा उल्टा सोच के देखिये !  कितना अच्छा होता अगर आसमान ऊपर नही नीचे होता और धरती ऊपर होती?  वैज्ञानिक तौर पर नही, भावनाओ को आगे रखकर सोचिये जरा।  ये सरहदें ना होती फिर, कोई रेखाएं खींच ही नही पाता, हम मनुष्य की तरह जी रहे होते, मानवीयता भी छूटती नही, पृथ्वी की तरह हम इसे गंदा भी नही करते क्योकि आधारिक संरचना कुछ होती ही नही, नग्न होते सभी तो कोई भेद नही रहता, न स्त्री पुरुष में कोई आकर्षण रहता और न तो बच्चीयों और महिलाओं की बदहवासी होती।  न कोर्ट होते न कानून होते, न कानून तोड़ने वाला कोई होता।  ना बंगले होते ना चौलें होती, सब एक समान एक जगह पर।  कोई वर्ण अव्यवस्था ना होती।  पशु ना होते तो, न खाने का और न पूजा का संयोग बनता।  पक्षी की कलरव मिठास घोलती रहती हर जगह।  पेड़ न होते तो काटने की नौबत ही नहीं आती।  खुली हवा होती, धूप होती, जो मिलती वही प्राणवायु समझ के ले लेते।  तब नदियां, पेड़, झरने, समुद्र, पशु सब अपनी जगह स्वच्छ व खुशहाल रहते और हम उन्ह

कलाकार

  ये मुक्तछंद की कविता है उसे उन्मुक्त गगन में रहने दो।  भरने दो उड़ाने मीलों ऊँची , ना रहने दो उसे उस कठियारे में जहाँ वायु कम है।  श्वास उसकी आत्मा है, निश्वास वो (कलाकार) निर्जीव है।  कला है उसका अलंकरण न अलंकृत करते गहने उसको।  भिन्न है सबसे पर अभिन्न नहीं  जैसे अमूर्त स्वरों का शब्दों  से बंधन  जैसे नाता है रात्रि का दिवस से  जैसे मूर्तता का अमूर्तता से सम्बन्ध  जैसे प्रेम है पृथ्वी का गगन  से  जैसे मस्तिष्क व हृदय में स्पंदन  जैसे सूर्य, चन्द्र और तारे  इनके  रचयिता  को वंदन  भिन्न होकर भी अभिन्न रहना, मूर्त होकर भी अमूर्तता का लक्ष्य रखना, समाज से ही निकली हुयी यह कलाकार रुपी धारणा का वापस समाज  में ही विलीन हो जाना, कितना अद्भुत है। श्रुतिका 2017

मतवाला

देखो तो दीवानों  जैसे  हम पागल, बेसुध होकर, मतवाले हाथी जैसे,  रंग भरी, रंगीन, रंगों की दुनिया में लथपथ,  कीचड़ में सने हुए वराहों की तरह,  बरसात के पानी में तर बतर होकर,  झूमते हुए, अपनी मौज़ में,  किसी सुफ़ियाने की तरह, सृजनात्मकता से परिपूर्ण राह से होकर अमूर्त आनंद की ओर  जा रहे हैं। श्रुतिका 2017  

जीवन क्या है?

 जीवन क्या है?  जादू भरी नगरी है।  नगरी में तमाम तरह के लोग हैं , कुछ जादूगर भी हैं।  संघर्ष है , सीता है, गीता है, और माया भी है।  एक गली में भक्ति भी रहती है।  तमाम तरह के गलियारे हैं।  हँसी , ख़ुशी और सुख-दुःख सब एकसाथ खेलते हैं यहाँ।  झरने भी हैं खारे पानी के और हाँ ! मीठे पानी की बारीक़ धार भी है।  एक बावड़ी भी है, काली हो गई है नाले की तरह , सबने मिलकर उसे गन्दा कर दिया है।  पर उसकी ख़ासियत ये है की वो हमेशा खुशबू ही बिखेरती है।  उसके काले की महक नहीं आती।  गलियारों में ठंडी हवा के झोंके भी लगते हैं और गरम हवा झुलसा भी जाती है।  पल पल बदलता है यहाँ का मौसम।  कभी कभी तेज बारिश की बूंदे पड़ती हैं यहाँ , पर समय की शुष्कता उसे उड़ा  ले जाती है।  कभी तो दिल करता है की रहने दें इसे थोड़ा तर-बतर , पर  क्या करें ?  यहाँ समय की गति और ऋतुओं का बदलाव इसे ठहरने नहीं देता।  गति है! समय की जीवन की  उस गति को थामना असंभव है।  तो क्यों ना इस नगरी को आहिस्ता - आहिस्ता ही पार किया जाए।  श्रुतिका 19/Nov/2014

कुछ अनकही दीवारें

दूसरा पहर लग गया है। शांती है चारों ओर, दूर सड़कों पर कुछ गाड़ियां गुजर रही हैं। आवाजें कुछ मिली जुली हैं; तेज हवा की और भारी मालवाहक से उठे कंपन, अचानक कुछ जहाजों की भी, हवाई मार्ग से गुजरते हुए।  ये तो रही बाहर की बात। अंदर आज कुछ खालीपन है। पर ये कंपनों में कुछ समानता जरूर है।  जैसे मेहमान आते हैं कुछ दिनों के लिए और ये बेजान दीवारें जैसे जीवित हो जाती हैं। मैं कुछ कंपन महसूस करती हूं इनमे ,जैसे श्वास चल रहा हो और ये मेहमान जाते ही, धीरे धीरे इन कंपनों की तीव्रता भी कम हो जाती है और फिर वही बेजान दीवारें।  आज कुछ ऐसा ही माहौल है यहां। बीते कुछ दिनों से इनमें सजीवता थी, मेरे चित्रों से जो रूबरू होने का मौका मिल रहा था इन्हें। सांसे फिर शुरू हो गई थीं। पर आज मैं एक एक कर तस्वीरें उतार रही थी और मैंने महसूस की कम होती तीव्रता,  इन कंपनों की।  और जब वापस यहां आकर बैठी हूँ तो ये खाली दीवारें, मुझे इतनी बेचैन कर रहीं हैं। अजीब सी शांतता का आभास जैसे कोई पूर्णगति को प्राप्त हो गया हो। मुझसे बातें करती थी ये तस्वीरें और किसी के होने का अहसास भी कराती थीं। अब वो वापस लौट कर आएंगी या नहीं मैं न

रंग

 रंगों में - उलझने बहुत हैं।  खेलते खेलते एक समय ऐसा, कि रंग काले में परिवर्तित हो जाता है।  फिर सफ़ेद में प्रविष्ट हो जाता है,  फिर आधा कला और आधा सफ़ेद......  ⚪और इस सफ़ेद में समाहित है वो सारे रंग, जो घूमती हुयी रंगों की चक्री पर पड़े हुए सूर्य के प्रकाश के कारण सफ़ेद हो जाते है..... और काला रंग उस सफ़ेद का ही प्रतिबिम्ब है, जो ना हो तो  सफ़ेद का महत्व नहीं रहेगा।  ⚫और हम (कलाकार ) उस सफ़ेद में दबे हुए काले को खींचते हुए रेखाओं में परिवर्तित कर देते हैं तथा  उस विस्तारित सफ़ेद (अंतराल) को सिमित कर देते हैं।                ⚪सिमित हुआ सफ़ेद "आकार के अकार" में बंध कर एक विस्मित अनुभूति के रूप में हमारे मन की प्रतिमाओं (फॉर्म्स) जैसा कुछ जाना पहचाना प्रतीत होता है। किसी परिचित रूप से एकात्म होने का आनंद उसी प्रकार होता है, जैसे बचपन में कल्पना की हुयी कोई वस्तु लौकिक रूप में हमारे सामने आ जाए और हम उससे वार्तालाप का आनंद ले सकें। 🔴🟠🟡🟢🔵🟣🟤⚪⚫ श्रुतिका 10/9/11